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{{KKRachna
|रचनाकार=शंख घोष
|अनुवादक=मीता दास
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
पत्थर, दिन-ब-दिन उठाए हैं मैंने
सीने पर अपने
और आज उन्हें उतार नही सकता !
आज अभिशाप देता हूँ,
कहता हूँ — सब भूल थी, उतर जा, उतर जा !
फिर से शुरू करना चाहता हूँ
वैसे ही उठ खड़े होना चाहता हूँ
जिस तरह से उठ खड़ा होता है मनुष्य ।
दिमाग से ग़ायब हैं दिन
और हाथों के कोटर में लिप्त है रात
कैसे आशा कर लेते हैं आप कि बूझ ही लेंगे तुम्हारा मन
पूरे शरीर के अस्तित्व को घेर ।
नवीनता कभी नही जागी
हर पल सिर्फ़ जन्महीन महाशून्य से घिरा रहा
पर किसकी पूजा थी यह इतने दिनों तक ?
हो जाओ अब, अकेले, निरा अकेले,
आज बेहद धीमे स्वर में कह रहा हूँ — तू उतर जा, उतर जा,
पत्थर, देवता समझकर उठाया था सीने में, पर अब
मुझे तेरी सारी बातें पता हैं !
—
'''मूल बांग्ला से अनुवाद : मीता दास'''
</poem>
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|अनुवादक=मीता दास
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}}
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<poem>
पत्थर, दिन-ब-दिन उठाए हैं मैंने
सीने पर अपने
और आज उन्हें उतार नही सकता !
आज अभिशाप देता हूँ,
कहता हूँ — सब भूल थी, उतर जा, उतर जा !
फिर से शुरू करना चाहता हूँ
वैसे ही उठ खड़े होना चाहता हूँ
जिस तरह से उठ खड़ा होता है मनुष्य ।
दिमाग से ग़ायब हैं दिन
और हाथों के कोटर में लिप्त है रात
कैसे आशा कर लेते हैं आप कि बूझ ही लेंगे तुम्हारा मन
पूरे शरीर के अस्तित्व को घेर ।
नवीनता कभी नही जागी
हर पल सिर्फ़ जन्महीन महाशून्य से घिरा रहा
पर किसकी पूजा थी यह इतने दिनों तक ?
हो जाओ अब, अकेले, निरा अकेले,
आज बेहद धीमे स्वर में कह रहा हूँ — तू उतर जा, उतर जा,
पत्थर, देवता समझकर उठाया था सीने में, पर अब
मुझे तेरी सारी बातें पता हैं !
—
'''मूल बांग्ला से अनुवाद : मीता दास'''
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