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Kavita Kosh से
प्यासी धरती पर घनघोर पानी बरसता
मैं अपनी अस्थिमज्जा के सार को मिलाकर
रच देता वृष्टिवंदना वृष्टिवन्दना का स्तोत्र
यदि कविता लिखकर ....
देर तक रोने के बाद
सो गया जो बच्चा
उसके-जैसी दुख की छवि
मैंने जीवन में और कहीं नहीं देखी
तिल के फूलों के भीतर
धीरे-धीरे घुस रहे हैं कंबलकीड़ों कम्बलकीड़ों के झुण्ड
यदि कविता लिखकर ....
मलिन छाया में उड़ती जा रही है
हरेक की अपनी-अपनी पृथ्वी
शहर छोड़कर जब भी
लगता है किसी और ग्रह का बाशिन्दा हूँ
तुम्हारी तकलीफ़ों में मैं चुपके-चुपके रो सकता हूँ
लेकिन वह तो कविता नहीं होगी
तुम्हारी दुर्दशा पर प्रतिपक्ष के ख़िलाफ़
लेकिन वह तो कविता नहीं होगी
यह एक माया-दर्पण हैकविता, इसे लेकर कुछ अकेले में खेलने-जैसा
मुझे माफ़ कर देना !!