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<poem>
कई उलझनें खोंप रखी हैं जूड़े में पिन से
‘कब उजियारा आयेगा’ वह पूछ रही दिन से

तेज़ आँच पर रोज़
उफनते भाव पतीले से
रस्सी पर अरमान पड़े हैं
गीले-सीले से
जली रोटियाँ भारी पड़तीं
जलते जख़्मों पर
घर तो रखा सँजोकर
लेकिन मन बिखरा भीतर
काजल, बिंदी, लाली, पल्लू
घाव छिपाते हैं
अभिनय करते होंठ बिना
मतलब मुस्काते हैं
कई झूठ बोले जाते हैं सखी पड़ोसिन से

छुट्टी या रविवार नहीं
आते कैलेंडर में
दिखा नहीं सकती थकान
लेकिन अपने स्वर में
देख विवशता, बरतन भी
आवाजें करते हैं
परदे झट आगे आ जाते
वो भी डरते हैं
डाँट-डपट से उम्मीदें हर
शाम बिखरती हैं
दीवारें भी बतियाती हैं
चुगली करती हैं
रात हमेशा तुलना करती रही डस्टबिन से
</poem>
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