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दोहा दशक-3 / गरिमा सक्सेना

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<poem>
शाख़ों के थे ख़्वाब कुछ, पत्तों के कुछ और।
जड़ चिंतित ख़ामोश सी, किस पर करती ग़ौर।।

सभी तितलियों ने स्वयं, नोंचीं अपनी पाँख।
जब से ज़हरीली हुई, उपवन में हर आँख।।

सिंदूरी धरती हुई, गई ताप को भूल।
कड़ी धूप में जब झरे, गुलमोहर के फूल।।

सूरज भी जब ढल गया, फैल गया अँधियार।
जुगनू ने तब थाम ली, हाथों में तलवार।।

स्वेद, अश्रुओं से भरा, जनता ने जो ताल।
राजा जी उस ताल में, रहे मछलियाँ, पाल।।

हलवा कोने में पड़ा, फीकी पड़ी दुकान।
गोबर महँगा बिक गया, ऊँचा था गुणगान।।

माँसाहारी जीव का, सिर्फ़ शुद्ध है खून।
लिखा शेर ने इस तरह, जंगल का कानून।।

फूल उजाड़े जा रहे, कैक्टस है ख़ुशहाल।
उपवन जैसे देश में, इसका नहीं मलाल।।

जीवन को पहले किया, ज़ख्मों में तब्दील।
फिर दुनिया ने सौंप दी, हमें नमक की झील।।

बंदिश, आफत, झिड़कियाँ, सब कर लिया कबूल।
लेकिन कुम्हलाया नहीं, उसके मन का फूल।।
</poem>
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