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|संग्रह=सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे / रामकुमार कृषक
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<poem>
सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे
हम कहाँ हैं !

बढ़ रहा आकार
शब्दों का
हो रहे हैं अर्थ
बौने
उठ रहे राडार
कानों के
स्वर बिचारे आध-पौने,
हम जहाँ हैं !

बहुत–से सम्वाद
सतरों के
छू रही हैं सिर्फ़
आँखें
घुस रहा यदि कुछ
ज़हन में तो
बस सलाखें-ही-सलाखें,
हम यहाँ हैं !

4–5–1976
</poem>
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