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|संग्रह=सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे / रामकुमार कृषक
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<poem>
बादलों में जल नहीं है
जल रहा आकाश
और नीचे उतरती
मरुथल सरीखी प्यास !

घुमड़ते हैं
गरजते भी हैं
क्रुद्ध बिजली भी गिरा जाते
पर कभी क्यों गन्ध सोंधी
बन नहीं पाते ?

मौसमी ही क्यों
युगों का संग यह परिहास !

जानती
पहचानती भी है
स्वाति का सौहार्द यह धरती
पर फ़सल से मोतियों की
भूख कब मरती ?

भूख ही क्यों
काव्य भू का
भूख ही इतिहास !

14-5-1976
</poem>
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