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|संग्रह=सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे / रामकुमार कृषक
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<poem>
रोटियाँ चाहे कहीं हों क़ैद
रोटियों की
गन्ध तो है पास !

महकता पर्याय
सच का
गन्ध का अहसास
धरती से जुड़ा है
आदमी उसको कहें कैसे
जो ख़ुद को छोड़
‘खुद-आ’ तक उड़ा है,

जन्नतें चाहे कहीं हों लाख
जन्नतों की
अब यहीं तालाश !

सुलगता परिवेश
भू का
और यह आकाश
सपने बो रहा है
रात-दिन उठती हुई ऊँचाइयों में
आदमी अब
और बौना
और बौना हो रहा है,

मूल ही जाता रहा यदि आज
ब्याजधर्मी सभ्यता
बकवास !

21-7-1976
</poem>
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