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|रचनाकार= बैर्तोल्त ब्रेष्त
|अनुवादक=शुचि मिश्रा
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<Poem>
मित्रो, मैं यही चाहूँगा
कि सत्य को जानो और कहो
किसी रणछोड़ और थके
राजा की बात में मत बहो
कि 'कल पहुँच जाएगा आटा !'

बल्कि लेनिन-उद्घोष-सा सन्नाटा
कि हमने कुछ नहीं किया तो
सब कुछ हो जाएगा बर्बाद
बिल्कुल इस छोटे गान की तरह —
'बन्धुओ, यह किस सन्दर्भ में है
मैं तुमसे कहूँगा स्पष्ट
हमें आज जो है कष्ट
जिस जाल से है वास्ता
नहीं है, उससे
निकलने का कोई रास्ता !'

दोस्तो,
यह कबूल करो मज़बूती से
दो-चार होते रहो स्थिति से
तब तक; जब तक कि... !

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : शुचि मिश्रा'''
</Poem>
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