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<poem>
बग़ैर किसी मुरव्वत और लिहाज़ के
बेहयाई से खड़ी कर दी उन्होंने
ऊँची-ऊँची मोटी-मोटी दीवारें मेरे चारों तरफ़
जिनके बीच मैं बैठा हुआ हूँ घोर निराश

यह होनी मेरा माथा खाए जा रही
कुछ सोच नहीं पा रहा अतिरिक्त मैं
कि इसके बाहर बहुत कुछ करना था मुझे

मैं क्यों न जान सका कि वे
चारों ओर दीवारें उठा रहे थे
पाई नहीं मैंने कोई सुगबुगाहट या टोह

उन्होंने अकारण ही मुझे
अलग कर दिया इस असार-संसार से !

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : शुचि मिश्रा'''
</poem>
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