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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता भट्ट
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
ना जाने किनसे रुष्ट हो -
रोकर अपनी बात समझाना चाहती हो,
लेकिन किन्हें?
सामने तो पत्थर हैं
और पता ही होगा-
पत्थरों में
न रक्त, न धमनियाँ, न शिराएँ
न हृदय, न मन, न ही आत्मा
इसीलिए तुम अब
'''अँधेरों में खो जाओ कविते!'''
संभवतः नियति यही है।
</poem>
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ना जाने किनसे रुष्ट हो -
रोकर अपनी बात समझाना चाहती हो,
लेकिन किन्हें?
सामने तो पत्थर हैं
और पता ही होगा-
पत्थरों में
न रक्त, न धमनियाँ, न शिराएँ
न हृदय, न मन, न ही आत्मा
इसीलिए तुम अब
'''अँधेरों में खो जाओ कविते!'''
संभवतः नियति यही है।
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