भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
अन्धेरे की काली दीवार पर जहाँ, नाचती दिख रही हैं नर्तक परछाइयाँ
कहकहे हैं, पागलपन है, सुर्ख़ पताकाओं के नीचे बज रही हैं तुरहियाँ ।
 
'''मूल जर्मन से अनुवाद : अनिल जनविजय'''
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,627
edits