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<poem>
दोपहर तीन बजे
सिर्फ़ नींद में ही वह 
अपना नन्हे लड़के वाला अकेलापन दिखाता था 
जिससे मैं एक दोपहर एकाएक ही मिली 
मैं उसे जगाने की हिम्मत न कर सकी 
हालँकि हमारे साथ का समय सीमित था उन दिनों

मैं बैठी उधेड़बुन में उसे देखती रही 
सपनों की किन पेचीदी गलियों में वह घूम रहा था 
वह मासूम, अपनी लालसा में कितना किंकर्तव्यविमूढ़

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : रंजना मिश्र'''
</poem>
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