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हे कवि! / अनीता सैनी

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बगुला-भक्तों की मनमानी
कब विधाता की लेखनी ने जानी?
गौण होती भविष्य की रूपरेखा
हे कवि! तुमने कुछ नहीं देखा?

जन जीवन के, हृदय के फफोले
भक्तों ने पैर रख-रखकर टटोले।
दबे- कुचलों की मासूम चीखें
हे कवि! निष्पक्ष होकर लिखें।

बच्चों के हाथों से छीनते रोटी
जात-पात की फेंकते गोटी।
ग़रीबों का उजड़ता देख चूल्हा
हे कवि! तुम्हारा पेट नहीं फूला?

कैसा मनचाहा खेल रचा?
ख़ुदा बनने का यही रास्ता बचा?
शक्तिमान बनने का कैसा जुनून?
हे कवि! क्यों नहीं टोकता क़ानून?

तुम भाव प्रकृति के पढ़ते हो
भावनाओं को शब्दों में गढ़ते हो?
वर्तमान देख भविष्य लिखते हो
हे कवि! तुम कैसे दिखते हो?

दर्द लिखते हो? या दर्द जैसा ही कुछ
अंतरमन में अपने झाँक कर पूछ।
सरहद-सी बोलती लकीर का खींचना
हे कवि! कर्कश होता है युद्ध का चीख़ना।
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