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|रचनाकार=अनीता सैनी
}}
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अँजुरी से छिटके जज़्बात
मासूम थे बहुत ही मासूम
पलकों ने उठाया
वे रात भर भीगते रहे
ख़ामोशी में सिमटी
लाचारी ओढ़े निर्बल थी मैं।
तलघर की कोठरी के कोने में
अनेक प्रश्नों को मुठ्ठी में दबाए
बेचैनियों में सिमटा
बहुत बेचैन था मेरा अक्स।
आँखों में झिलमिलाती घुटन
धुएँ-सा स्वरूप
बारम्बार पीने को प्रयासरत
दरीचे से झाँकती
विफलता की रैन बनी थी मैं।
निर्बोध प्रश्नों को
बौद्धिकता के तर्क से सुलझाती
असहाय झूलती
बरगद की बरोह का
धरती में धसा स्तम्भ बनी थी मैं।
</poem>
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अँजुरी से छिटके जज़्बात
मासूम थे बहुत ही मासूम
पलकों ने उठाया
वे रात भर भीगते रहे
ख़ामोशी में सिमटी
लाचारी ओढ़े निर्बल थी मैं।
तलघर की कोठरी के कोने में
अनेक प्रश्नों को मुठ्ठी में दबाए
बेचैनियों में सिमटा
बहुत बेचैन था मेरा अक्स।
आँखों में झिलमिलाती घुटन
धुएँ-सा स्वरूप
बारम्बार पीने को प्रयासरत
दरीचे से झाँकती
विफलता की रैन बनी थी मैं।
निर्बोध प्रश्नों को
बौद्धिकता के तर्क से सुलझाती
असहाय झूलती
बरगद की बरोह का
धरती में धसा स्तम्भ बनी थी मैं।
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