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सासुर / दीपा मिश्रा

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सासुर शब्द सुनिते मोनमे
धुकधुकी हुए लगैये
बिदाइक समय माय बाप
कहैत छथि बेटीकेँ
आब तोँ अपन घर जाइत छें
बेटी टकटकी लगा देखैये
त' की हम जाहि घरमे जन्म लेलौं
पढलौं खलेलौं ओ हमर नै?
ब्याह होइत देरी गाम नैहर
शब्दमे बदैल जाइत अछि
सासुर जतय पहुंँचते देरी
नवकी कनियाकेँ
कोबरेमे इई भान करा देल जाएत छन्हि
"सुनू नबकी कनिया
अहाँ जे अप्पन घरमे करैत रही
से एतय नहि चलत
एकर अलग मर्यादा अछि
अहाँकेँ ओहिमे रंगऽ पड़त"
किछु अपनाकेँ ओहिमे
बिसैर जाइत छथि
सासुरक हिसाबेँ ढलि जाइत छथि
तइयो समय-समय पर
उनका बुझा देल जाएत छैन
ई हुनकर घर नहि छैन
आ किछु ओतौ अपन अस्तित्वकेँ
बचेबाक प्रयास करैत छथि
हुनका लेल अपने घरमे विरोध होइत छैन
शिकायत आलोचनाक ओ कनिया
मुख्य केंद्र बनैत छथि
किछु निन्दा कुचेष्टासँ टुटि जाइत छैथ
अपन प्रारब्ध बुझि ओहिमे
रमि जाइत छथि
लेकिन किछुए एहेन बचैत छथि
जे अपना लेल नव मार्ग चुनैत छथि
हुनकर कहब जे टूटब कोनो
समाधान नै छी
जीवन व्यक्ति विशेष केँ अपन थिक
ओ कोनो नैहर सासुरसँ बान्हल नै
हमर गाम हम अपनहि चुनब
समाजसँ बाध्य भऽ के नाहि
</poem>
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