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अन्ततोगत्वा / मोना गुलाटी

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|संग्रह=सोच को दृष्टि दो / मोना गुलाटी
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<poem>
वे अक्सर
चौंक जाते हैं : वे
जब देखते हैं कि उनको घेरती भीड़ में दो चमकदार व निश्छल
आँखें हैं ।

वे अक्सर उदास होते हैं जब
उन पर यह स्पष्ट होना शुरू हो जाता है कि
वह कोई भी रंग चुन लें अपने झण्डे का :
सुबह उसे हलके हाथों से छूती है; दुपहर उसको
नंगा कर देती है और शाम उसे गुम !

कितनी भी कोशिश की जाए;
रौशनी की क़तार खड़ी
कर दी जाए
पर सुबह, दुपहर और शाम
की हरकतें बन्द नहीं होतीं, झण्डा कभी
नंगा होता है
कभी डूबता है ।

उदासी उन्हें समझदार बना रही है ।
उन्होंने
घोषणा की है
अब उन्हें जानने के लिए झण्डे या उसके रंग पर ग़ौर
नहीं करना पड़ेगा ।

उन्हें तलाश करने के लिए मकान, संसद भवन या
सड़क पर नहीं दौड़ना पड़ेगा ।

अब उनके लिए कुछ नहीं करना होगा ।
केवल सुबह उठकर ग़ौर से
अपनी हथेलियों को देखना होगा
और देखना होगा
उनमें खुदी लकीरें बरक़रार हैं,

सुबह से चमक और उत्साह लेकर अपनी
रगों को स्पन्दित करना होगा
और दिन भर
मिट्टी को गढ़ना होगा;
फूल में, रोटी में, धुएँ में, रौशनी में।

और तभी वे अकस्मात् मिलेंगे
शाम को लम्बी
नींद में बदलने के लिए !
</poem>
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