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वन जीवन है / प्रदीप शर्मा

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वन जीवन है, जनजीवन का,
जन जन को इसे बचाना है।
वन से सरसा संसार यह सारा
सुन्दर और सुहाना है।
वन जीवन है।

यही वन थे जहां पर ऋषियों ने
सत–चित–आनन्द को पाया था,
आत्मबोध की शोध में
सबने वानप्रस्थ अपनाया था,
कभी इन्हीं वनों की महिमा से
भारत स्वर्णिम कहलाया था,
बीते कल की यह धरोहर है,
आते कल का यह खज़ाना है।
वन जीवन है

जिन वनवासी संग राम, कृष्ण,
गौतम ने वर्षों वास किया,
वनदेव–सा उनने पूजा, हमने,
जंगली कह उपहास किया,
खुद अपनी जड़ों को काट के हम,
कहते हैं हमने विकास किया,
फ़िर जंगल में मंगल करके,
इनका गौरव लौटाना है।
वन जीवन है

सभी वन थे अभय, जहां निर्भय,
सब वन के जीव विचरते थे,
कहीं सिंह–शावक, कहीं शुक–सारिक,
कहीं वेद के शब्द उचरते थे,
कहीं भरत, कहीं एकलव्य और कहीं
लव–कुश क्रीडा करते थे,
मन के दुष्यंत में बोध जगा,
फिर शाकुन्तलम सजाना है।
वन जीवन है
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