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|रचनाकार=युनसिम ई
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युनसिम ई की कविता में कुछ बहुत सुबुक अहसास हैं, कुछ मासूमियत और स्वप्निल सौन्दर्य, जिसमें सीपियाँ, शँख और घोंघे तुम्हें सुनने के लिए झुकते हैं मेरे समुद्र के द्वार पर, जैसेकि उनकी समूची अस्ति की सीपी में सर्वाधिक वेद्य स्थली में, जो सागर-प्रिय धीमे धीमे छनकता है, उसे सुनने तमाम सुन्दरताएँ आ कान लगाती हों, तो इन्हीं सुन्दरताओं के मध्य अन्धे सुराख़ से ताकता- झाँकता रात का दार्शनिक उल्लू भी दिखता है :
आख़िरी उल्लू, जो इल्ली की किह - किह साधता मर गया !
जैसे प्रकृति की भारी शून्यता में उल्लू की चीख़ से दरारें पड़ जाती हैं !
पछतावा क्यों कविता में दो अजनबी भावभूमियों में एक गाढ़ी मैत्री छनने लगी है, जैसे दो आत्माएँ किसी आकाशीय मण्डप तक उठ जाएँ फेरे लेने को, लेकिन चत्वर वेदी में काँच का एक जूता चमक उठे !
मानो वहाँ एक अलग सिण्ड्रेला खड़ी हो, जिसकी काँच की चप्पल मण्डप की वेदी में घड़ी की सुई की तरह घूमती है और राजकुमार उसके चरणों में है।
साथ बिताए समय का काँटा चुनने ...।
उनकी ’Transmutation’ यानी ’रूपान्तरण’ शीर्षक कविता का अनुवाद करने के लिए मैंने विश्व मोहिनी का पूरा मिथक उठा लिया ।
जब मैंने कविता के ढाँचे में एक पंक्ति में इस मिथक को रखा तो ऊपर तक पूरी कविता के जिस्म में पानी सी लरजिश हुई ।
"साथी बदलने की स्थिति में भी निरपेक्षता प्रवाहित होती है" से शुरू होने वाली इस कविता में अपने तीव्र क्षेपक प्रक्षेपण अनुक्रम की संगत के बीच एक बन्दर - मुख उभरा । सिंहासन पर रखे खड़ाऊँ उड़ा लिए गए
और उस पर हंसती विश्व मोहिनी ने उच्चारा : "नारायण ... नारायण ...।"
युनसिम ई की कविता में यह इसी तरह नहीं है, लेकिन उसके भाव को मैंने इस तरह से उभारा उनकी कविता से ही एक पदावली उधार लेते हुए कह सकते हैं ट्रांसलेशन इज रिजनरेटिंग अ पिरामिड
अधित्यका पर कुमारी एक बहुत ही अद्भुत कविता है जिसमें
कुमारी अनछुई लौटती है पवित्र
घास,पत्तियां ,हवा
सब कुछ स्पंदित होता है और वापस अपने आसन में जड़ हो जाता है
उसके हाथ में बीज और बूटी रह जाते हैं। स्त्री विमर्श में देह की स्वतंत्रता पर यह अपने ढंग की विलक्षण कविता मुझे लगी और वह भी तब जब ग्रीक माइथॉलजी में आर्टेमिस आदि देवियों की भूमिका निश्चित सी हो!
आर्टेमिस शुद्धता, शिकार और चंद्रमा की देवी थी, जिसे अक्सर उसके भरोसेमंद धनुष और तीर और जंगल में भागने में सहायता के लिए एक छोटे अंगरखा के साथ चित्रित किया जाता था। उसका प्रथम गुण – क्योंकि उसने कभी शादी न करने की कसम खाई थी – को भावुक और उग्र एफ़्रोडाइट के प्रतिरूप में प्रस्तुत किया गया था। कुछ कहानियों में उसे थोड़ी बड़ी उम्र की जुड़वां बहन के रूप में दिखाया गया है, जिसने प्रसव में अपनी मां की सहायता की और इस तरह प्रसव पीड़ा में महिलाओं की रक्षक और संरक्षक बन गई।
सोते पुरुष को नापते उनकी यह कविता दो अलग-अलग स्तरों पर रोमांचित करती है: एक: स्त्री उस पुरुष की नींद में झाँकती है जो उसका शिकार करके सो गया है, पुरुष वहाँ से वापस नहीं लौट सकता:
यह एक आदिम दिवास्वप्न है जो इस तरह सच होता है (ऐसा होता है)!
अपनी भविष्यवाणियों से घिरी महिला
उसकी निजता में ताक-झाँक कर
उसके बड़बड़ाने का मदिरा मशकीज़ा ( wineskin ) अपने लिए “काल्पनिक प्यास “टटोलने के निमित्त उलट देती है।
उनके पिरामिड के त्रिकोण भेंटते काटते उत्परिवर्तन का बिगुल कुछ इस तरह बजाते हैं के उनकी परतों में कायापलट की लहरियां उठती मचलती हैं
बर्फ की पंखुड़ियां एक एक खिलती हैं और उनके खिलने की चटक में टकराने से वजूद की कैफियत पैदा होती है जो उतने ही धीमे मर जाती है
“वहां और फिर शीतकालीन विषुव के निकट परले दर्जे का जश्न ए तजदीद शुरू हुआ”
— '''बालकीर्ति'''
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युनसिम ई की कविता में कुछ बहुत सुबुक अहसास हैं, कुछ मासूमियत और स्वप्निल सौन्दर्य, जिसमें सीपियाँ, शँख और घोंघे तुम्हें सुनने के लिए झुकते हैं मेरे समुद्र के द्वार पर, जैसेकि उनकी समूची अस्ति की सीपी में सर्वाधिक वेद्य स्थली में, जो सागर-प्रिय धीमे धीमे छनकता है, उसे सुनने तमाम सुन्दरताएँ आ कान लगाती हों, तो इन्हीं सुन्दरताओं के मध्य अन्धे सुराख़ से ताकता- झाँकता रात का दार्शनिक उल्लू भी दिखता है :
आख़िरी उल्लू, जो इल्ली की किह - किह साधता मर गया !
जैसे प्रकृति की भारी शून्यता में उल्लू की चीख़ से दरारें पड़ जाती हैं !
पछतावा क्यों कविता में दो अजनबी भावभूमियों में एक गाढ़ी मैत्री छनने लगी है, जैसे दो आत्माएँ किसी आकाशीय मण्डप तक उठ जाएँ फेरे लेने को, लेकिन चत्वर वेदी में काँच का एक जूता चमक उठे !
मानो वहाँ एक अलग सिण्ड्रेला खड़ी हो, जिसकी काँच की चप्पल मण्डप की वेदी में घड़ी की सुई की तरह घूमती है और राजकुमार उसके चरणों में है।
साथ बिताए समय का काँटा चुनने ...।
उनकी ’Transmutation’ यानी ’रूपान्तरण’ शीर्षक कविता का अनुवाद करने के लिए मैंने विश्व मोहिनी का पूरा मिथक उठा लिया ।
जब मैंने कविता के ढाँचे में एक पंक्ति में इस मिथक को रखा तो ऊपर तक पूरी कविता के जिस्म में पानी सी लरजिश हुई ।
"साथी बदलने की स्थिति में भी निरपेक्षता प्रवाहित होती है" से शुरू होने वाली इस कविता में अपने तीव्र क्षेपक प्रक्षेपण अनुक्रम की संगत के बीच एक बन्दर - मुख उभरा । सिंहासन पर रखे खड़ाऊँ उड़ा लिए गए
और उस पर हंसती विश्व मोहिनी ने उच्चारा : "नारायण ... नारायण ...।"
युनसिम ई की कविता में यह इसी तरह नहीं है, लेकिन उसके भाव को मैंने इस तरह से उभारा उनकी कविता से ही एक पदावली उधार लेते हुए कह सकते हैं ट्रांसलेशन इज रिजनरेटिंग अ पिरामिड
अधित्यका पर कुमारी एक बहुत ही अद्भुत कविता है जिसमें
कुमारी अनछुई लौटती है पवित्र
घास,पत्तियां ,हवा
सब कुछ स्पंदित होता है और वापस अपने आसन में जड़ हो जाता है
उसके हाथ में बीज और बूटी रह जाते हैं। स्त्री विमर्श में देह की स्वतंत्रता पर यह अपने ढंग की विलक्षण कविता मुझे लगी और वह भी तब जब ग्रीक माइथॉलजी में आर्टेमिस आदि देवियों की भूमिका निश्चित सी हो!
आर्टेमिस शुद्धता, शिकार और चंद्रमा की देवी थी, जिसे अक्सर उसके भरोसेमंद धनुष और तीर और जंगल में भागने में सहायता के लिए एक छोटे अंगरखा के साथ चित्रित किया जाता था। उसका प्रथम गुण – क्योंकि उसने कभी शादी न करने की कसम खाई थी – को भावुक और उग्र एफ़्रोडाइट के प्रतिरूप में प्रस्तुत किया गया था। कुछ कहानियों में उसे थोड़ी बड़ी उम्र की जुड़वां बहन के रूप में दिखाया गया है, जिसने प्रसव में अपनी मां की सहायता की और इस तरह प्रसव पीड़ा में महिलाओं की रक्षक और संरक्षक बन गई।
सोते पुरुष को नापते उनकी यह कविता दो अलग-अलग स्तरों पर रोमांचित करती है: एक: स्त्री उस पुरुष की नींद में झाँकती है जो उसका शिकार करके सो गया है, पुरुष वहाँ से वापस नहीं लौट सकता:
यह एक आदिम दिवास्वप्न है जो इस तरह सच होता है (ऐसा होता है)!
अपनी भविष्यवाणियों से घिरी महिला
उसकी निजता में ताक-झाँक कर
उसके बड़बड़ाने का मदिरा मशकीज़ा ( wineskin ) अपने लिए “काल्पनिक प्यास “टटोलने के निमित्त उलट देती है।
उनके पिरामिड के त्रिकोण भेंटते काटते उत्परिवर्तन का बिगुल कुछ इस तरह बजाते हैं के उनकी परतों में कायापलट की लहरियां उठती मचलती हैं
बर्फ की पंखुड़ियां एक एक खिलती हैं और उनके खिलने की चटक में टकराने से वजूद की कैफियत पैदा होती है जो उतने ही धीमे मर जाती है
“वहां और फिर शीतकालीन विषुव के निकट परले दर्जे का जश्न ए तजदीद शुरू हुआ”
— '''बालकीर्ति'''
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