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खोज / विनोद भारद्वाज

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<poem>
उसने कहा, मैं जानती थी इस समुद्र खण्ड में
दो हज़ार पहाड़ हैं
तुम उस भूलभुलैया से कभी निकल नहीं पाओगे

मैं सोचता रहा उस अजीब सपने के बारे में
तुम्हीं तो कहती थी — सुबह के सपने सच निकलते हैं
मुझे सुबह सपना आया था, जहाँ बहुत दूर जहाज़ से हम
कहीं जा रहे हैं
वहाँ एक खोया हुआ पहाड़
चित्रकार स्वामीनाथन का भी है

उसे मैं शाम से ढूँढ रहा हूँ

स्वामी, दिसम्बर सुबह की खूब ठण्ड में
एक पुरानी शाल में लिपटे, सर पर एक टोपी लगाए
अपनी बीड़ी सुलगा रहे थे
वह कुछ कहना चाह रहे थे शायद
बन्द करो कला - बाज़ार की बकबक
मैंने अपने पहाड़ और उसकी नन्ही-सी चिड़िया को पहचान लिया है
उसे बेरहमी से क़ैद न करो

और हमारा जहाज़ लगातार रहस्यमय पहाड़ों के बीच
चक्कर
लगा रहा था
तुम उदास थी, तुमने कहा — मैं उदास नहीं हूँ
पर सारे रिश्तों की बक-बक, झक-झक मुझे उदास कर रही है

और मुझे अचानक
पहाड़ तो नहीं, स्वामी की चिड़िया दिख गई
जो मुझे पीली कनेरी की तरह दिखी
जिसे मैंने अन्तिम बार उदास और थोड़ा पास हो कर कहा —
लव यू हमेशा
</poem>
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