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|अनुवादक=हरेकृष्ण दास
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<poem>
प्रश्नवाचक चिह्नों के घेरे में
मुझे धँसा हुआ छोड़कर
कहाँ भगे हो चोरी-चुपके मुँह मोड़कर
रे, समय !

जहाँ कहीं भी बाहें फैलाता
नज़र कटारी धार घूरती रहती है तुम्हारी
समय-असमय

जीवन का रोम-रोम घायल है
और कटार-सी उतरती सीने में
निर्बाध छनकती तेरी पायल है

मुझे कहो दूर भागते हुए समय —
मेरी दुर्बलता रही
मेरी अयोग्यता की आड़ में
मेरी बाँहों में एकसाथ संभावनाओं के हरे-भरे रंग
होते रंग-बेरंग
फैलता शून्य का विशाल वितान
मेरी आँखों के सामने उत्तान (लापरवाह)

मेरी अयोग्यता का भोलापन
कटाक्ष करने के लिए
और प्रिय की आँखों में मासूमियत के लिए नहीं

मेरी असहायता
मेरी अयोग्यता उस आवाज को संजोने के लिए है
जिसे मैं शब्दों की कर्कशता के बीच ढूँढ़ रहा था

क्या सबकुछ मेरी सहनशक्ति के परे नहीं है ?
क्या आत्मा में आत्मसात करने की कोमलता
अटूट भरोसे के साथ नहीं है —
भावनाओं का स्पर्श और दिल में गूँजने वाले शब्द
अब सहनशीलता की सीमा से परे ?

एक सुराग छोड़ दे, रे, समय !
कैसे खोलनी हैं दुनिया के सारे पूछताछ के पुलि्न्दों की भूलभुलैया गाँठे

रे प्रहरी ! अन्त बिन्दु पर
अपनी दुनिया को दो हिस्सों में खुला रखो
मैं या तो शरण लूँगा
या रेंगते हुए शून्य में विलीन हो जाऊँगा।

'''ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास'''
</poem>
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