भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्नदाता / शीतल साहू

5 bytes added, 11:49, 6 जून 2024
दुनिया की भूख मिटाता।
सदियों से यही करता आ रहा हुंहूँदिन-रात जी तोड़ मेहनत मैं करता रहा हुंहूँफिर भी भूख, गरीबी, शोषण, कर्ज़ भोगता रहा हुं। हूँ।
सभी की मैं भूख मिटाता
दूध मैं उपजाता
मथनी से उसको मैं मथता
पर मुझे सुखी सूखी रोटी ही नसीब होतीमेरी मेरा दूध का मक्खन, घी कोई और ले लेता।
मैं अब भी वही हुँहूँ
जहाँ सदियों से जहाँ खड़ा था
बेबस, मजबूर और लाचार।
थोड़ी बहुत मन में थी जो एहसास
ये धरा की टुकड़ा तो है मेरे पास
पुरखो पुरखों की पहचान और थाती है मेरे हाथ
पर लोगों की गिद्ध दृष्टि इस पर भी है।
वो तमाम शोषण, कर्ज, पीड़ा क्या कम थे
जो अब मुझे मेरी ज़मीन से भी हटा रहे
हमारी पुरखो पुरखों की थाती लूट रहे
मेरी जीवन का आधार भी छीन रहे।
359
edits