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{{KKRachna
|रचनाकार=विष्णुकांत पांडेय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>
सुबह - सुबह जो आई धूप,
शिखर - शिखर मुसकाई धूप ।
बिखर - बिखरकर छप्पर - छत पर,
धरती पर छितराई धूप ।
जाड़े में मनभाई धूप,
गरमी में गरमाई धूप ।
तपती रहती, तन झुलसाती,
बरखा में शरमाई धूप ।
फूल - फूल में, कली - कली में,
धीरे - धीरे, गली - गली में ।
जाने कब खिड़की पर उतरी,
घर में घुसी लजाई धूप ।
सूरज निकला आई धूप,
दिनभर राम दुहाई धूप ।
शाम हुई, सो गई कहीं जा,
अलसाई - अलसाई धूप ।
</poem>
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|रचनाकार=विष्णुकांत पांडेय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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सुबह - सुबह जो आई धूप,
शिखर - शिखर मुसकाई धूप ।
बिखर - बिखरकर छप्पर - छत पर,
धरती पर छितराई धूप ।
जाड़े में मनभाई धूप,
गरमी में गरमाई धूप ।
तपती रहती, तन झुलसाती,
बरखा में शरमाई धूप ।
फूल - फूल में, कली - कली में,
धीरे - धीरे, गली - गली में ।
जाने कब खिड़की पर उतरी,
घर में घुसी लजाई धूप ।
सूरज निकला आई धूप,
दिनभर राम दुहाई धूप ।
शाम हुई, सो गई कहीं जा,
अलसाई - अलसाई धूप ।
</poem>