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डायरी: चचा से चुहल

आज बहुत दिन बाद चचा से छेदछाड़ करने का मन हो रहा है। उन्होंने लिखा है:यार से छेड़ चली आय असद न सही इश्क़ अदावत ही सही। मैं बूढ़ा ज़रूर हो गया हूँ, लेकिन इतना अहमक़ भी नहीं कि ग़ालिब का यार होने का दावा करूं और ‘छेड़’ की दावत क़बूल कर लूँ, फिर भी उनसे मेरी छेदछाड़ बरसों पुरानी है और कई दोस्तों का खयाल है कि चचा अपने हर चाहनेवाले को इसकी इजाज़त देते हैं और हरगिज़ इसका बुरा नहीं मानते।

आज सुबह से मेरी ज़बान पर ग़ालिब की यह बेहद मशहूर ग़ज़ल चढ़ी हुई है ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है’। ख़ास तौर से मैं ग़ज़ल के इस शेर पर अटक गया हूं ‘हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार या इलाही ये माजरा क्या है?’ 'हम' तो मुश्ताक़ होंगे ही, आख़िर तो हम आशिक़ ही ठहरे! हमारी तो लालसा ही यह होती है कि किसी तरह माशूक़ का दीदार हो जाय, उससे दो बातें हो जाएं तो हमारा जनम सफल हो जाए। अगर हम मुश्ताक़ हैं तो इसमें ‘माजरा’ क्या है और ऐसा माजरा क्या है जिसकी फ़रियाद इलाही तक पहुंचाई जाय? हमारा मुश्ताक़ होना तो हमारा हक़ है, हमारी हस्ती का जुज़ है। वो सुने या न सुने हम तो उससे मुख़ातिब होंगे ही हमारे दिल में तो यह इश्तियाक़ होगा ही कि किसी तरह हमारी फ़ुग़ां उसके कान तक पहुंचे और वो हमारी तरफ़ मुतवज्जो हो। लेकिन चचा की बात अभी अधूरी है।

पूरा माजरा यह है कि 'हम' तो मुश्ताक़ हैं लेकिन 'वो' बेज़ार हैं। तो,यह भी क्या माजरा हुआ? माशूक़ की बेज़ारी कोई नई बात नहीं। यह बेज़ारी न हो तो आशिक़ की मिन्नत-समाजत की क़ीमत ही क्या रह जायगी। दरअसल यह बेज़ारी उसकी अदाए-नाज़ का ही तो एक हिस्सा है और आशिक़ का तो जनम ही उसके नाज़-नखरे उठाने, उसकी खुशामद करने, के लिए हुआ है। मुख़्तसर यह कि मुश्ताक़ होना आशिक़ की नियति है और बेज़ार होना माशूक़ की फ़ितरत। यह तो ऐसा ही है जैसा कि होना चाहिए। इसमें किसी 'माजरे' की तलाश करने की ज़हमत ही क्यूं गवारा की जाय?

हाँ, माजरा हो सकता था; अगर 'वो' मुश्ताक़ होते और 'हम' बेज़ार होते। अगर ऐसा होता तो यह आशिक़ाना फ़ितरत और शायराना रवायत के खिलाफ़ होता और इस मोजिज़े को समझने में इलाही मदद की दरकार हो सकती थी।

अब मुझे शिद्दत से इंतज़ार रहेगा कि चचा के चाहनेवाले इस बाबत क्या कहते हैं? चुप्पी से काम नहीं चलनेवाला।
(13-02-2023)
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