भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन अन्तहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँऔर यह अंतहीन अन्तहीन सहानुभूतिपाखंड पाखण्ड लगे।लगे ।
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा महत्वाकाँक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा।खाएगा ।
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।करेगा ।
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।सकूँ ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,594
edits