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काला पानी / अरुणिमा अरुण कमल

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<poem>
बहुत ही सुंदर, बहुत मनोरम
द्वीप एक छोटा-सा था,
अंग्रेजों ने उसको लेकिन
काला पानी नाम दिया!

भारत के जन-जन में तब
मन में आग धधकती थी,
लहू की जगह, हर रग में
राष्ट्रभक्ति ही बहती थी!
वे देशभक्त थे, सदा समर्पित
हम तैयार, हमें ले लो
यह जान है अपनी देश की खातिर
हमारे रक्त से तुम होली खेलो!

देश के लिए, स्वीकार है सबकुछ
काला पानी से कब इंकार किया!
अंग्रेजों ने उसको सच ही
काला पानी नाम दिया!

सीना चौड़ा किए सपूत हर
शासन समक्ष था अड़ जाता,
भारत माता के लिए ख़ुशी से
सूली पर वह चढ़ जाता!
या फिर उस अंधी कोठर में
उम्र गुज़ार पूरी लेता,
तन और मन के हरे व गहरे
जख्मों को वह पी लेता!

देख न पाया फिर कभी सगों को
सेल्यूलर जेल में जो आया!
अंग्रेजों ने उसको सच ही
काला पानी नाम दिया!

कोल्हू के बैलों-सा दिन भर
घिसकर तेल पेरता था,
अपने राष्ट्र की खातिर पल-पल
जीते-जी वह मरता था,
पैर रुके जो थोड़े थककर
कोड़े वहीं बरसते थे!
लहू बहाकर, जान गँवाकर
सब हँसते-हँसते सहते थे!

दर्द कराहें दीवारों पर
ऐसी वह लिख गए व्यथा,
छिपे हैं आंसू , छिपी वेदना,
सच, काला पानी नाम दिया!
</poem>
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