भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन / रंजना जायसवाल

2,235 bytes added, 19:39, 12 सितम्बर 2024
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= रंजना जायसवाल
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मन किसी जंगल से कम तो नहीं।
किसी जंगल से गुजरने के बाद
जैसा महसूस होता है,
कुछ वैसा ही मैं
आजकल न जाने क्यों महसूस करती हूँँ।
हरियाया-सा मन का कोई कोना,
तो कहीं खर-पतवार का घना कोहरा,
ढक देता है मन को
और छटपटाता है हर रोज़ ।
ऊँचे-ऊँचे दरख्तों के बीच झाँकते
उम्मीद की कोई रौशनी
जगाती है एक बार फिर
जीने की ललक।
पर मैं तब भी वही हूँ जैसे
जिम्मेदारियों की भारी शिलाओं के बीच
दबे हुए नवांँकुर।
मानो दबी हो इच्छाएँ और सपने
जो छटपटाते है पूर्ण होने के लिए।
दीमक चाट जाते हैं
जैसे स्वस्थ पेड़ों को।
चाट जाती हैं वैसे ही
जिम्मेदारियाँ मेरे सपनों को।
कहीं आत्मदाह करते वृक्ष,
जैसे जला रहे हो अपने सपनों को।
पैरों के नीचे चरमराते सूखे पत्ते,
जैसे चरमराते हो आधे-अधूरे ख्वाब।
कहीं उन्माद का कल-कल करता झरना,
मानो चाहता हो हर दर्द को हर ना।
कहीं दूर खुलता आकाश और
मन भरता गहरा उच्छ्वास
सचमुच मन! किसी जंगल से कम तो नहीं।
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
16,500
edits