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पारदर्शी तिमिर / नामवर सिंह

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<poem>
पारदर्शी तिमिर में दो छाँह से हम
बीच मेँ हँसता कुहेसी मौन ।
लग रहे कैसे सुदूर निगाह में हम
पूछता जाने न मेरा कौन ?

देख यह क्षण भी गया अनबोले ही
ओठ पर काँपा : ’कहो कुछ और’
डीठ मिलने से प्रथम की कौंध वह
स्वयं को ही ज्यों पकड़ ले चोर ।
</poem>
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