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|रचनाकार=ज्योति पांडेय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
जिस दिन मृत्यु का अंकुर फूटेगा मुझमें,
देह की जगह शून्य का एक विशालकाय पेड़
झट्ट से उग आएगा!
तुम रोओगे। चीखोगे। चिल्लाओगे।
नोचोगे-खसोटोगे मुझे।
या संभवतः प्यार करोगे। छुओगे हौले से।
चूमोगे।
पर, मैं थिर रहूँगी।
अपने जीवन के दिनों में
मुझे जिन चीजों पर गुमान था
और तुम जिन पर मोहित थे,
तिल-तिलकर तिरोहित होती जाएँगी वे
चिता की आग में!
मेरे चमकदार बाल,
जीवंत आँखें,
नर्म होंठ,
सब प्लास्टिक-से जलकर पिघलने लगेंगे।
तुम मौन खड़े किनारे
देखोगे सब...
और मैं तब भी,
थिर रहूँगी!
मौत बिखेर देगी मेरी देह के जले टुकड़ों को।
हवा, पानी, आग, आकाश और पाताल में
थोड़े-थोड़े हर ओर रह जाएँगे
मेरे कभी रहे होने के साक्ष्य।
और मैं थिर रहूँगी!
मृत्यु! तुम सबसे बड़ा और बलशाली सत्य हो।
और बचा नहीं जा सकता तुमसे,
बावजूद इसके
मैं नहीं चाहती मरना।
मुझे जीवन-भ्रम से प्रेम है!
</poem>
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जिस दिन मृत्यु का अंकुर फूटेगा मुझमें,
देह की जगह शून्य का एक विशालकाय पेड़
झट्ट से उग आएगा!
तुम रोओगे। चीखोगे। चिल्लाओगे।
नोचोगे-खसोटोगे मुझे।
या संभवतः प्यार करोगे। छुओगे हौले से।
चूमोगे।
पर, मैं थिर रहूँगी।
अपने जीवन के दिनों में
मुझे जिन चीजों पर गुमान था
और तुम जिन पर मोहित थे,
तिल-तिलकर तिरोहित होती जाएँगी वे
चिता की आग में!
मेरे चमकदार बाल,
जीवंत आँखें,
नर्म होंठ,
सब प्लास्टिक-से जलकर पिघलने लगेंगे।
तुम मौन खड़े किनारे
देखोगे सब...
और मैं तब भी,
थिर रहूँगी!
मौत बिखेर देगी मेरी देह के जले टुकड़ों को।
हवा, पानी, आग, आकाश और पाताल में
थोड़े-थोड़े हर ओर रह जाएँगे
मेरे कभी रहे होने के साक्ष्य।
और मैं थिर रहूँगी!
मृत्यु! तुम सबसे बड़ा और बलशाली सत्य हो।
और बचा नहीं जा सकता तुमसे,
बावजूद इसके
मैं नहीं चाहती मरना।
मुझे जीवन-भ्रम से प्रेम है!
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