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आजादी / दिनेश शर्मा

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आजादी के पावन यज्ञ में
बन समिधा न जले होते
परतंत्रता के चक्रव्यूह से
अब तक ना निकले होते

देश धर्म पर हो बलिहारी
कितने बलिदान दिए तुमने
अनशन और आंदोलन भी
सालों साल किए तुमने
सत्ता की ज्वाला से तुम
तनिक कहीं पिंघले होते
परतंत्रता के

कड़ी बेड़ियों जंजीरों को
समझ लिया मोती का हार
काला पानी दिखता था
स्वर्णिम देवलोक का द्वार
तेल पेरने को कोल्हू में
न बन बैल चले होते
परतंत्रता के

भारत माँ का रूप सदा
तेरे उर में बसता था
फांसी का फंदा शादी का
गठजोड़ा-सा लगता था
आजादी दुल्हन के सपने
न मन में पलते होते
परतंत्रता के

बाँध कमर पर निज तनुज
गोरों से लड़ जाती थी
अश्वों की टापों से उड़ती
धूल का स्वाद चखाती थी
स्वाभिमान के भाव दृढ़
सीने में न ढले होते
परतंत्रता के चक्रव्यूह से

स्वतंत्रता की वेदी पर
चढ़ा नर मुंडों की माला
रणचंडी को भोग लगाया
भरा रक्त का प्याला
हव्य तेरा जीवन ना होता
सब ने हाथ मले होते
परतंत्रता के

हे असंख्य शहीदों तुमसे
है ज़िंदा आन औ बान
भारत वर्ष कृतज्ञ तुम्हारा
गाता रहता गौरव गान
संस्कार तुम्हारे ना मिलते
कहो कैसे संभले होते
परतंत्रता के चक्रव्यूह से
</poem>
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