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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
गुलों पर फेर कर सुर्खी चमन दहका गया कोई।
फलक से बाद ये गुलगू लगा बरसा गया कोई।

सुना है नक़्श गुम्बद के रहे अब तक पहेली जो,
पहँुचने से हमारे पेश्तर सुलझा गया कोई।

तसव्वुर के दिये से जब हुये दिल के वरक़ रोशन,
मेरे सीने से लगकर ज़िन्दगी महका गया कोई।

निगलने वाले थे जब मुझको काली रात के साये,
सवेरे की किरन बनकर ज़मीं पर छा गया कोई।

भर आये आँख में आँसू दुखी दिल को क़रार आया,
निभाने के लिए रिश्ते क़सम दुहरा गया कोई।

महकते जश्ने सीमी में तरन्नुम से ग़ज़ल गाकर,
सलीका सांस लेने का हमें सिखला गया कोई।

ठिठुरते जिस्म पर ‘विश्वास’ फैलाकर दुशाले को,
बुझे साइल के चेहरे पर चमक बिखरा गया कोई।
</poem>
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