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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
नये मौसम के आते ही पुराना भूल जाता है।
बशर दौलत को पाते ही ज़माना भूल जाता है।

ख़ुशी महसूस होती है उसे इन्सान कहने में,
जो दिल के ज़ख़्म महफ़िल में गिनाना भूल जाता है।

मसर्रत के नशे में वह कराये किरकिरी अपनी,
जो राजे़ दिल ज़माने से छुपाना भूल जाता है।

पुकारेंगे पुराने नाम से बेलाग इस डर से,
वो अपने दोस्त दावत में बुलाना भूल जाता है।

जमाना छीन ले सालार से तमगे वफा़ के जब,
वतन के वास्ते वह सर कटाना भूल जाता है।

गिरे नादान वह इक रोज़ ख़ुद अपनी ही नजरों में,
जो अपने खू़न के रिश्ते निभाना भूल जाता है।

मुहब्ब्त ऐसी दौलत है जिसे ‘विश्वास’ मिल जाये,
बशर वह लालो गौहर का ख़जा़ना भूल जाता है।
</poem>
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