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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
हुआ सरकार का गिरवी कहीं पर मुस्कुराना क्या।
कि आया बदनजर की जद में अपना दोस्ताना क्या।

घटाना दुःख दुखी का एक बस मकसद रहा अब तक,
न की परवाह रत्ती भर कहेगा ये ज़माना क्या।

कलन्दर हूँ यहाँ छोटे बड़े का फ़र्क़ नामुमकिन,
बराबर सब नज़र में अपनी जाहिल क्या सयाना क्या।

सुना है हर बशर को वह कसौटी पर परखते हैं,
खरा जो हर दफ़ा निकला हो, उसका आज़माना क्या।

लगाना दिल नहीं आसां, सभी इस सच से वाक़िफ़ हैं,
नहीं छिपता मरीजे इश्क़ ताजा़ क्या पुराना क्या।

मिला है आज मौका पी लें जी भर मय मुहब्बत की,
इजाजत इश्क़ की ये वक़्त कल फिर दे ठिकाना क्या।

गनीमत है ज़मीर अपना अभी ‘विश्वास’ जिन्दा है,
मुझे ये ज़ख़्म सीने के किसी से भी छुपाना क्या।
</poem>
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