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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
भूल गये हम सबके आगे रोना और तड़पना अब।
तन मन दोनों सीख गये हैं दर्द अकेले सहना अब।
कसमें वादों वाली दुनिया कोसों पीछे छूट गई,
बन्द हुआ आँखों से पानी चुपके-चुपके बहना अब।
जिक्र किसी का आने पर भी चेहरा सुखऱ् नहीं होता,
भूल गई पथ अपना हिचकी, भूली आँख फड़कना अब।
अब न किसी की आमद, हिजरत दिल पर कोई असर डाले,
एक मआनी रखते दोनों मिलना और बिछड़ना अब।
दीवारें खिड़की दरवाज़े ़ गर्द गु़बार उड़ाते हैं,
खूब शरारत करते हँसकर घुटना, कुहनी, टखना अब।
ये न पता था इस रिश्ते को उम्र नसीब नहीं होगी,
इन बेनूर चिरागों का अब क्या बुझना क्या जलना अब।
कोई सपना शेष न जिसका जादू कुछ पल बहला दे,
छोड़ दिया ‘विश्वास’ किसी से बात हृदय की कहना अब।
</poem>
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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
भूल गये हम सबके आगे रोना और तड़पना अब।
तन मन दोनों सीख गये हैं दर्द अकेले सहना अब।
कसमें वादों वाली दुनिया कोसों पीछे छूट गई,
बन्द हुआ आँखों से पानी चुपके-चुपके बहना अब।
जिक्र किसी का आने पर भी चेहरा सुखऱ् नहीं होता,
भूल गई पथ अपना हिचकी, भूली आँख फड़कना अब।
अब न किसी की आमद, हिजरत दिल पर कोई असर डाले,
एक मआनी रखते दोनों मिलना और बिछड़ना अब।
दीवारें खिड़की दरवाज़े ़ गर्द गु़बार उड़ाते हैं,
खूब शरारत करते हँसकर घुटना, कुहनी, टखना अब।
ये न पता था इस रिश्ते को उम्र नसीब नहीं होगी,
इन बेनूर चिरागों का अब क्या बुझना क्या जलना अब।
कोई सपना शेष न जिसका जादू कुछ पल बहला दे,
छोड़ दिया ‘विश्वास’ किसी से बात हृदय की कहना अब।
</poem>