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|रचनाकार=गायत्रीबाला पंडा
|अनुवादक=राजेन्द्र प्रसाद मिश्र
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<poem>
स्वेटर बुनते-बुनते
वह ख़ुद को ख़ुद से बुनती है

और बुन जाती है
दुनियादारी के साथ बड़े यत्न से
सुन्दर और सूक्ष्म रूप से ।

कभी किसी को नहीं सुहाता
उसके बुनने का तरीका ।

पुरुष एक अनन्य अनुभूति तलाशता है
चाहता है अप्रतिम आकृति,
वह मुस्करा देती है ।

गरमाहट बाँटने वाले
दुनिया के तमाम स्वेटर
उसे एक जैसे लगते हैं
जैसे ममता बाँटने वाली
दुनिया की सारी औरतें
हू-ब-हू एक-सी होती हैं ।

पुरुष की सारी पाशविकताएँ
अपनी ओट में छुपाए रखती हैं ।
</poem>
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