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<poem>
'''नौवीं सालगिरह '''
 
घुटनों-घुटनों बर्फ़ वाली एक रात को
शुरूआत हुई थी मेरे इस अभियान की —
फिर रेलगाड़ी से रवाना करके
एक कोठरी में बन्द कर दिया जाना.
उसका नौवाँ साल बीता है तीन दिन पहले।पहले ।
बरामदे में स्ट्रेचर पर पीठ के बल लेटा एक आदमी
मर रहा है मुँह बाए हुए,
क़ैद के लम्बे समय का दुख है उसके चेहरे पर। पर ।
शुरूआत में, एक बन्द दरवाज़े की
छिहत्तर दिनों की मौन अदावत,
फिर सात हफ़्तों तक एक जहाज़ के पेंदे में।में ।
फिर भी मैनें हार नहीं मानी थी :
मेरा सर
मेरे पक्ष में खड़ा एक दूसरा इनसान था।था ।
चाहे जितनी बार वे कतारबद्ध खड़े हुए हों मेरे सामने,
जब मुझे सज़ा सुनाई जा रही थी, उन्हें एक ही चिन्ता थी :
कि रोबदार दिखें वे।
मगर वे ऐसा दिखे नहीं।नहीं ।
वे इनसानों की बजाए चीज़ों की तरह नज़र आ रहे थे :
दीवार घड़ियों की तरह, मूर्ख
ढेर सारी उम्मीद और ढेर सारा दुख.
फ़ासले बहुत कम.
चौपाया प्राणियों में सिर्फ़ बिल्लियाँ।बिल्लियाँ ।
मैं वर्जित चीज़ों की दुनिया में रहता हूँ !
जहाँ वर्जित है :
अपनी महबूबा के गालों को सूँघना। सूँघना ।
जहाँ वर्जित है :
अपने बच्चों के साथ एक ही मेज़ पर बैठकर भोजन करना।करना ।
जहाँ वर्जित है :
बीच में सींखचों या किसी चौकीदार के बिना
अपने भाई या माँ से बात करना।करना ।
जहाँ वर्जित है :
अपनी लिखी किसी चिट्ठी को चिपकाना
या चिपकाई हुई किसी चिट्ठी को पाना।पाना ।
जहाँ वर्जित है :
सोने जाते समय बत्ती बुझाना। बुझाना ।
जहाँ वर्जित है :
चौपड़ खेलना। खेलना ।
और ऐसा नहीं है कि यह वर्जित नहीं है,
मगर जो आप छिपा सकते हैं अपने दिल में या जो आपके हाथ में है
वह है प्यार करना, सोचना और समझना। समझना ।
बरामदे में स्ट्रेचर पर पड़े आदमी की मौत हो गई।गई ।वे उसे ले गए कहीं।कहीं ।
अब न तो कोई उम्मीद और न ही कोई दुख,
न रोटी, न पानी,
न स्त्रियों की हसरत, न चौकीदार, न खटमल,
और कोई बिल्ली भी नहीं बैठकर उसे ताकते रहने के लिए.
वह धन्धा तो अब खलास, ख़तम।ख़तम ।
मगर मेरा काम तो अभी जारी है :
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