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कमीज़ के कपड़े में
यौवन की सिलवटें थीं,
हर धागे में
एक अधूरी कहानी उगा करती थी।
दर्जी की कैंची काटती थी कपड़े को
पर सपनों को नहीं ।
बची कतरनें
जैसे मन के कोने में अटके हुए ख्याल
न छोड़े जाते - न सिले जाते।
मैंने कहा -
"इनसे रूमाल बना दो या स्कार्फ़
जो गले में लिपटे
तो यादों का बोझ हल्क़ा हो।"
कतरनें जमा होती रहीं
जैसे भीतर
मोह की छोटी-छोटी गठरियाँ ।
हर कतरन में
एक रंग
एक गंध
एक आधा-लिखा ख़त ।
कभी नीला
जैसे सुबह का आसमान
कभी लाल
जैसे साँझ की लज्जा ।
इन कतरनों को
कभी तह नहीं किया
बस बिखेर दिया
मन के आँगन में
कभी हवा में उड़तीं
कभी ठहरकर - पुरानी बातें सुनातीं।
एक कतरन बोली - मुझे छोड़ दे, मैं बोझ हूँ।
पर मैंने उसे
दिल के तहखाने में
सँभाल लिया ।
कतरनों का मोह
जैसे नदी का किनारा
जो बहता नहीं-बस ठहरता है।
हर कतरन
एक छोटा-सा मंदिर,
जहाँ पूजा जाता है
वो, जो कभी पूरा नहीं हुआ।
कभी सोचता हूँ-
इन कतरनों को
उड़ने दूँ हवा में - पंछी की तरह।
पर फिर डर लगता है -
क्या बचेगा
अगर मोह की ये गठरियाँ
खुल गईं?
तो मैं बस इन्हें सिलता हूँ
धीरे-धीरे
एक अनगढ़ कविता में
कतरनें अब भी बिखरी हैं
पर अब वे
मेरे मन की धुन में नाच उठती हैं।
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