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|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
तूने लपटों को जो आँगन में उतारा होता
तो हर इक अश्क मचलता हुआ पारा होता

ज़िन्दगी होती है क्या इसको समझने के लिए
मौत को तूने किसी रोज़ तो मारा होता

वो तो जोगी की बसाई हुई इक कुटिया थी
बादशाहों का वहाँ कैसे गुज़ारा होता

दस्तकें दर पे बहुत देर तलक दीं उसने
काश ! इक बार मेरा नाम पुकारा होता

वो जो धरती पे भटकता रहा जुगनू बन कर
कहीं आकाश में होता तो सितारा होता.
</poem>