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::प्रभु सर्व व्यापी, व्याप्त पर स्थित ह्रदय में विशेष है,<br>::अंगुष्ठ मात्र,त्रिकाल शासक ब्रह्म ही परमेश है।<br>::अनुसार स्थिति के, सभी आकारों से संपन्न है,<br>::नचिकेता प्रश्नायित तुम्हारे, ब्रह्म ये ही अभिन्न हैं॥ [ १२ ]<br><br>
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::ज्यों उच्च शिखरों पर वृषित जल, गिरि के चहुँ दिशि फैलता,<br>::अनुरूप रूप के रूप ले, जल एक हैं देते बता।<br>::ज्यों एक प्रभु से सृजित सृष्टि, प्रभु पृथक किंचित नहीं,<br>::यदि मान्यता जिनकी पृथक, उनकी कभी मुक्ति नहीं॥ [ १४ ]<br><br>
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