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::इस दृश्यमान जगत का कारण ब्रह्म पुरुषोत्तम अहे,<br>::अतिशय दयालु प्रभु तथापि, भय स्वरूप भी है महे।<br>::परब्रह्म का यह महत भय मय रूप जो भी जानते,<br>::तत्वज्ञ वे होते अमर, विधना की विधि पहचानते॥ [ २ ]<br><br>
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::शेष मानव जन्म होने से पूर्व अति, अति पूर्व ही,<br>::यदि भजन साधक कर सके तो जन्म पाये अपूर्व ही।<br>::बिन भजन साक्षात्कार के,यह जन्म व्यर्थ है सिद्ध है,::पुनि विविध योनी लोक में, वह कल्पों तक आबद्ध है॥ [ ४ ]<br><br>
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::बहु विविध रूपों में इन्द्रियों की जो पृथक सत्ता मही,<br>::उनकी उदय लय की प्रवृति अति पृथक न जाए कही।<br>::पर आत्मा का स्वरूप उनसे है विलक्षण सर्वथा,<br>::शुचि, नित्य, चेतन, एक रस और न बदलने की प्रथा॥ [ ६ ]<br><br>
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::आकार हीन अव्यक्त व्यापक दिव्य पुरुषोत्तम महे,<br>::को जान, बन्धन मुक्त जीव हो, दिव्य सुख कैसे कहें।<br>::आनंदमय अमृत स्वरूपी ब्रह्म ईशानं महा,<br>::है सर्वदा अन्तःसमाहित, मूढ़ मति कहता कहों॥ [ ८ ]<br><br>
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