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यही ॐ ऐसा परम अक्षररक्षक रचयिता जगत का अति आदि ब्रह्मा अति महे, चरम अविनाशी महे। <br>विश्वानि जग उसकी महिमा ही महिमा, प्रकृति गरिमा का कहे। <br>ब्रह्मा स्वयं भू देवताओं में प्रथम अति दिव्य हे !आगत विगत ओंकार कालातीत जग का मूल हैस्व ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को, ब्रह्मा ने उपदिष्ट की,<br>आद्यंत हीन, अचिन्त्य कारणशुचिमूल भूता ब्रह्म विद्या, सूक्ष्म और स्थूल है॥ ब्रह्मा ने निर्दिष्ट की॥ [ १ ]<br><br>
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विश्वानि जग सब ब्रह्म मय और श्री ब्रह्मा ने जिस ब्रह्म विद्या को अथर्वा से परिपूर्ण हैकहा,<br>दृष्टव्य जो उसे अंगी ऋषि से अथर्वा ने पूर्व उससे भी जगत में, सब ब्रह्म मय सम्पूर्ण है। <br>कहा।यह ब्रह्मउन अंगी ऋषि ने भारद्वाजी सत्य वह ऋषि को कहा, वेदों में कथित है कि चार पैरों वाला है,<br>सर्वात्मा ही तो ब्रह्म पर ब्रह्म विश्व धारण वाला है॥ पूर्ववत अथ पूर्ववत अथ पूर्ववत का क्रम रहा॥ [ २ ]<br><br>
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जाग्रत अवस्था की तरहविख्यात कि शौनक मुनि, सब जगत प्रभु का शरीर हैऋषि कुल अधिष्ठाता जो थे,<br>भूःऋषि अंगीरा के पास आए , भुवः आदि लोक सप्तम अंग प्राण समीर हैं। <br>कुछ मन को मथे।सब ज्ञान कर्मेन्द्रियाँ ह्रदय व् प्राण मुख अति विनत हो पूछा कि भगवन , तत्व कौन सा है अगम्य का,<br>महे?स्थूल भोक्ता, ज्ञाता धारकजिसे जान कर हो विज्ञ सब कुछ, पाद पहला ब्रह्म का॥ तत्व वह कृपया कहें॥ [ ३ ]<br><br>
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एक स्वप्नमय यह सूक्ष्म जग हीअथ ब्रह्म ज्ञाता दृढ़ता से, जिसका वास निवास हैनिश्चय से कहते सार हैं,<br>संकल्प मय ऋत ये परा अपरा दो ही विद्याएँ हैं ज्ञान जिनका, सूक्ष्म जग आवास अपार है। <br>सप्तांग उन्नीसमानव को ये ही ज्ञान दो, मुखों वालाजो श्रेय और ज्ञातव्य हैं, रूप बृहत अगम्य का,<br>आत्मा भू अखिलेश तेजस, द्वितीय पाद है ब्रह्म का॥ शौनक मुनि से अंगिरा ऋषि ने कहा श्रोतव्य हैं॥ [ ४ ]<br><br>
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ज्यों सुप्त मानवउन दोनों में से साम यजुः ऋग अथर्व अपरा वेद हैं, कामना व् स्वप्न हीन सुषुप्ति है,<br>इस सुषुप्तिवस्था सम ही प्रलय काल प्रवृति है। <br>विज्ञान मयछंद , आनंद मयज्योतिष, शुभ ज्योति मुख है अगम्य काव्याकरण,<br>व् निरुक्त वेद के भेद हैं।आनंद का एकमेव भोक्तावह परा विद्या वेद की, तृतीय पाद है जिससे कि ब्रह्म का॥ का ज्ञान हो,वेदांगों वेदों के ज्ञान से , मानव महिम हो महान हो॥ [ ५ ]<br><br>
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विश्वानि विश्व का मूल कारण एक सर्वेश्वर अहेज्ञान इन्द्रिय,<br>सर्वज्ञकर्म इन्द्रिय, अन्तर्यामीआकृति विहीन जो नित्य है, सबके प्राण धारक शुचि महे। <br>उत्पत्ति स्थित प्रलय मूल में, आत्म भू अखिलेश अनुपम अग्रहायम विभु अगोत्रम है,<br>अदृश्य अचिन्त्य है।अतः प्राज्ञ से वैश्वानरप्रभु सर्वव्यापी सूक्ष्म अतिशय ब्रह्म अविनाशी महे, सब रूप में सर्वेश है॥ प्राणियों के परम कारण, पूर्ण प्रभु ज्ञानी कहे॥ [ ६ ] <br><br>
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प्रज्ञंज्यों मकडी जले को बनाती और स्वयं ही निगलती , अप्रग्यंज्यों विविध औषधियों धरा से , बाह्य अन्तः, प्रज्ञहीन , अचिन्त्य है,<br>पुष्टि पाकर निकलतीं।अदृश्य , अग्राह्यम, अव्यह्रुत , अद्वितीय तत्व ज्यों प्राणियों के देह से रोयें व् नित्य है। <br>शुभकच उत्पन्न हो, शुचि, पंचातीत शांत है, मर्म अगम अगम्य का,<br>ज्ञातव्य प्रभु, अद्विति तत्व त्यों ब्रह्म निष्कामी से सृष्टि में ही चौथा पाद है ब्रह्म का॥ सब निष्पन्न हो॥ [ ७ ]<br><br>
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' अ ' 'उ ' व् 'म ' ये तीनों मात्राएँ ही तीनों पाद हैंसंकल्प तप से सृष्टि काले, ब्रह्म सृष्टि को रचे,<br>उनके तीनों पाद ॐ फ़िर सूक्ष्म से स्थूल अथ सृष्टि की मात्राएँ ब्रह्म नाद हैं। <br>सरंचना रुचे।परमात्मा इन तीनों मात्राओं अथ अन्न से युक्त ओंकार हैउत्पन्न प्राण हो, प्राण से मन सत्य भी,<br>इनका समन्वय ही ब्रह्म की आराधना का प्रकार है॥ फ़िर लोक कर्म व् कर्म फल सुख दुःख रूप के कृत्य भी॥ [ ८ ]<br><br>
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परिपूर्ण परमेश्वर का पहला पाद ' अ ' ही आकार है,<br>यह शब्द व्यंजन, वर्ण , स्वर, जड़ तत्व ,जग का आकार है। <br>सम्यक जो जाने वैश्वानर, ऐसे अकार विराट की,<br>इच्छाएं पूर्ण प्रधान पायें , वह कृपा सम्राट की॥ [ ९ ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra"></span> <span class="mantra_translation">ओंकार की मात्रा द्वितीय ' उ 'उकार उत्कृष्ट है,<br>जो स्वप्न इस सकल सृष्टि के सम सूक्ष्म हैआदि कारण, यह उसका रूप विशिट है। <br>' उकार ' ज्ञान की प्रथा उन्नत जो करे उस कुल में भीब्रह्म तो सर्वज्ञ हैं,<br>जानते हिरण्यगर्भ रूपीसर्व ज्ञाता विश्व पोषक, ब्रह्म तेजस को सभी॥ [ १० ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra"></span> <span class="mantra_translation">ओंकार की मात्रा तृतीया ' म ' से मापक ध्वनित है,<br>' म ' में विलीनीकरण 'म ' में ' अ ' व् ' उ ' सन्निहित सब विज्ञ है। <br>कारण, सुषुप्ति जग अधिष्ठाता में ॐ मकार है,<br>' म ' प्राज्ञ व् सर्वज्ञ पर ब्रह्म का पाद तृतीया प्रकार है॥ [ ११ ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra"></span> <span class="mantra_translation">मात्रा रहित ओंकार रूपातीत शिव है विशिष्ट हैतप ज्ञान मय ,अथ जाने जो जिससे वह आत्मा परमात्मा में प्रविष्ट हैं। <br>मन वाणी का नहीं विषय अतः मर्म अगम अगम्य कारचता सृष्टि है,<br>निगुणसब नाम रूप व् अन्न जग के, निराकारी स्वरुप, चौथा पाद है ब्रह्म का॥ विराट की एक दृष्टि है॥ [ १२ ]<br><br>
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