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<Poem>
'''राजनीति जब कर्म नहीं, कर्मकांड हो तो क्यों न उसके ÷तांत्रिाक'तांत्रिक' भी हों! भूमंडलीकृत कर्मकांड के ये ÷जन'जन-तांत्रिाकतांत्रिक' हैं, जो अपने -अपने अनुष्ठानों को जनतंत्रा जनतंत्र के नाम पर चला कर, जनता को विकास के आईने दिखाना चाहते हैं। उन्हें पता नहीं, पता है कि नहीं कि यह विकास ÷हां' ÷नहींहां'-'नहीं' के द्वंद्व में फंस फँस चुका है। आईना भी अब इतना जड़ नहीं रहा कि उसे यह प्रश्न न कुरेदे कि सदियों से चला आ रहा यह जनविश्वास कि ÷आईना 'आईना झूठ नहीं बोलता' क्या सिर्फ सिर्फ़ अंधविश्वास बन कर रह जायेगा? तो, क्या आईना -द्रोह होगा? होगाᄉशायद होगा- शायद या निश्चित! तीन उपशीर्षकों उप-शीर्षकों में यह लम्बी कविता, इसी ÷शायद'शायद' और ÷निश्चित'निश्चित' के द्वंद्व की कविता है।'''
॥ हां हाँ-नहीं ॥
सबके अपने -अपने ÷हां हां'हाँ-हाँ' सबके अपने ÷नहीं 'नहीं-नहीं' तना -तनी में कभी -कहींतो सांठ गांठ साँठ गाँठ में कभी -कहीं
वह मुझे मूरख समझता होगा
या मासूम
भला कैसे जानेगा वह,
न मैं इतना मासूम हूंहूँ, न अकेला
मैं उन बहुतों में एक हूं हूँ
और एक में वह बहुत
जिनकी निगाह में आ चुका है
जन-तांत्रिाकतांत्रिक!''"
मुझे क्या मतलब
किसी का भविष्य बांचने बाँचने से
सिवा अपना
जिनका वर्तमान ही नहीं, उनका भविष्य क्या?
इसीलिए हमें वर्तमान पर काबिज रहना है!
आईन हो या आईना
मजाल कि हमारे भविष्य से आंख आँख मूंद ले!''"
जन-तांत्रिाक तांत्रिक
किसी भी हिस्से से अपने शरीर के
वह
उसके
न धूम थी न कोई हुजूम होता था।
वह था निहायत मासूम आदमी
कम से कम/चेहरे से तो
था ही
और, उंगलियों से भी