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{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|संग्रह=नील कुसुम / रामधारी सिंह "दिनकर"; धूप और धुआँ / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
{{KKCatKavita}}<poem>लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल। ::सिसकियों और चीत्कारों से, ::जितना भी हो आकाश भरा, ::कंकालों क हो ढेर, ::खप्परों से चाहे हो पटी धरा । आशा के स्वर का भार, पवन को लिकिनलेकिन, लेना ही होगा, जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा। ::रंगो के सातों घट उँड़ेल, ::यह अँधियारी रँग जायेगी, ::ऊषा को सत्य बनाने को ::जावक नभ पर छितराता चल। आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रग्या प्रग्या प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही। प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही। ::आवर्तों का है विषम जाल, ::निरुपाय बुद्धि चकराती है, ::विज्ञान-यान पर चढी हुई ::सभ्यता डूबने जाती है। जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है, शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल। ::सूरज है जग का बुझा-बुझा, ::चन्द्रमा मलिन-सा लगता है, ::सब की कोशिश बेकार हुई, ::आलोक न इनका जगता है, इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे, जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे। ::दीपक के जलते प्राण, ::दिवाली तभी सुहावन होती है, ::रोशनी जगत् को देने को ::अपनी अस्थियाँ जलाता चल। क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में, फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में ?में।::मानवता का तू विप्र, !::गन्ध-छाया का आदि पुजारी है, ::वेदना-पुत्र! तू तो केवल ::जलने भर का अधिकारी है। ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले, दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल। ::काया की कितनी धूम-धाम! ::दो रोज चमक बुझ जाती है; ::छाया पीती पीयुष, ::मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है । लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है, तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है। ::कनकाभ धूल झर जाएगी, ::वे रंग कभी उड़ जाएँगे, ::सौरभ है केवल सार, उसे ::तू सब के लिए जुगाता चल। क्या अपनी उन से होड़, अमरता की जिनको पहचान नहीं, छाया से परिचय नहीं, गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं? ::जो चतुर चाँद का रस निचोड़ ::प्यालों में ढाला करते हैं, ::भट्ठियाँ चढाकर फूलों से ::जो इत्र निकाला करते हैं। ये भी जाएँगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर, जैसे मुसकाता आया है, वैसे अब भी मुसकाता चल। ::सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, ::यह अर्थ-मानवों का बल है, ::हम रोकर भरते उसे, ::हमारी आँखों में गंगाजल है। शूली पर चढा चढ़ा मसीहा को वे फूल नहीं समाते हैं हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं। ::भींगी चाँदनियों में जीता, ::जो कठिन धूप में मरता है, ::उजियाली से पीड़ित नर के ::मन में गोधूलि बसाता चल। यह देख नयी लीला उन कीउनकी, फिर उन ने उनने बड़ा कमाल किया, गाँधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया। ::जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, ::भारत की मिट्टी रोती है, क्य ::क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की ::यह लाश न जिन्दा होती है? तलवार मारती जिन्हें, बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती, जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल। ::धरती के भाग हरे होंगे, ::भारती अमृत बरसाएगी, ::दिन की कराल दाहकता पर ::चाँदनी सुशीतल छाएगी। ज्वालामुखियों के कण्ठों में कलकण्ठी का आसन होगा, जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा। ::बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, ::मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी, ::मुँह खोल-खोल सब के भीतर ::शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।</poem>