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Kavita Kosh से
रबने-खटने के थकने से
सोई हुई है स्त्री,
मिलता जो सुख
वह जगती अभी तक भी
महकती अंधेरे में फूल की तरह
या सोती भी होती
तो होंठों पर या भौंहों में
तैरता-अटका होता
हँसी-खुशी का एक टुकड़ा बचाखुचा कोई,
पढ़ते-लिखते बीच में जब भी
नज़र पड़ती उस पर कभी
देख उसे खुश जैसा बिन कुछ सोचे
हँसता बिन आवाज़ मैं भी,
नींद में हँसते देखना उसे
मेरा एक सपना यह भी
पर वह तो
माथे की सलवटें तक
नहीं मिटा पाती सोकर भी.
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