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|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
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झाड़ी के पास से गुज़रते हुए
वह अपनी दाढ़ी पर फेरता हाथ
ख़तरनाक रास्ते कित्ते
मोड़ पगडंडियाँ रेलवे क्रॉसिंग
भुतही-सी लगती पुलिया
मटमैले आकाश के नीचे
फैलता हुआ भूखण्ड ऊबड़-खाबड़...
समतल कुछ भी नहीं उसे मस्तिष्क में भी
धुएँ में हिचकोले खाते रहने के बाद
आकृतिहीन होने लगते
तमाम घबराए हुए चेहरे

वह
दहशत के पागल कुत्ते पर
गोली दागने के लिहाज़ से
टटोलने लगता जेब
पर हाथ लगती ख़ाली माचिस

धत्तेरे की कह कर वह
बैठ जाता वहीं एक काले पत्थर पर
आग के इंतज़ार में...

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