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उन दिनों
 
किसनपुरा के करीब
 
एक निरंतर निनादित नदी रहती थी
 
मन की मौज में
 
कार्तिक की गुनगुनी धूप ओढ़कर
बाँस के जंगल
 संग-संग बहती हथी थी
पारदर्शी पानी में
 
दिप-दिप जगमाते
 नीले...... हरे ..... कत्थई पत्थर बिखेरते  सुनहरी धूप के सैंकड़ों दुखद रंग
किनारों पर
कभी-कभार .  घूपने घूमते दिख जाते हैं मछुआरे
डालते जाल
खूंचते खींचते, तरल आँखों वाली
सुनहली मछलियाँ
धीरे-धीरे
 
बढ़ी भूख़
गहरे काले जल मे
बिछने लगा बारूद
 
और ... धमाकों के बाद
 
तिकोने कटाव वाले “रोके” पर
 लूडी लूटी जाने लगीं डब-डब आँखों वाली 
मरी जलपरियाँ
 
जिस दिन बारूद लगता
 
गाँव भर में
उतसाह का माहौल रहता
 
पास के कस्बे में
गिर जाते
 
मच्छी के भाव
 
देखते-देखते
 नदी नदी के उजले माथे पर
मैला उतरने लगा
 
 
सिकुड़ने लगे
 
उसके पाट
 
निर्जन हुए घाट
नदी के पेट में
 
भीतर-ही-भीतर
ढोल-सा लुड़कने लगा
तैज़ाबी मलवा
गाँव अब भी वही है
 
वही है नदी
 अंतर बस इतना है—अब है—अब वह शोर नहीं मचाती  
अब वह गीत नहीं गाती
 
बुद-बुद बहती है
 
चुप-चाप रहती है
 किसनपुरा गाँव के पास एक नदी
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