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|रचनाकार=अवतार एनगिल
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मैं जानती हूं
अब तुझे इस धरती से

निर्धनता की दुर्गन्ध आती है
और डॉलर की चमक
तेरे सपनों में झिलमिलाती है

तुम कहते तो नहीं

माँ मगर जानती है
उसकी कोख
अपने प्रति
तेरा रोष पहचानती है
खूब जानती है वह
अपने गाँव के सीधे लोग
अब तुम्हें गँवार लगते हैं
कि तुम्हारे नन्हें कदमों को
कल तक
अपने कोमल वक्ष पर दौड़ते हुए
महसूस करने वाली ज़मीन
आज तुम्हें जड़ और छोटी लगती है

तो, जाओ!
मेरे प्रवासी पुत्र!
मैं प्रार्थना करती हूं
तुम्हें यश मिले
मिलें सुख-सुविक्धाएं
और अपने लिए
बददुआ लेती हूं
तुम कभी न लौटो!
</poem>
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