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Kavita Kosh से
जिसे विदूषक ने आज दफ़ना दिया है कहीं
मंच के नीचे या नायकों के तख्तेताऊस के पास
देखो दोमुँहे शब्दों को
ध्यान से देखो
सुनो उनकी पीठ पीछे की फुसफुसाहट
मंच के तमाम तामझाम के बाद की
वह नेपथ्य की भूमिगत साज़िश...
इस साज़िश को मैं पहचानता हूँ
अपनी कविता की कपट-बेधी आँखों से
क्योंकि कपट से कपट के बीच धँसी हुई यह भाषा
सुख के पहाड़ की चोटी तक पहुँचाती है
हड्डियों को सपना दिखाती है तपती धूप में
एक क्षण बाद
गायब पहाड़
क्षत-विक्षत सपना
जस की तस् हड्डियाँ
यह भाषा चुपके-चुपके
आदमी का माँस खाती है
सत्य को जब चीथता है कोई शब्द
या कोई शब्द ध्वस्त हो
देता है हमें सत्य
तब टपकता है दूध कविता का
मज़बूत होती हैं घास की जड़ें
किंतु इसी वक्त यह मुझसे नहीं होगा
होगा तब भी
टेंटुआ मसकना इस झूठी भाषा का
सबसे होगा,
मुझे मक्खी को मकड़ी
या तिनके को तमंचा बनाना नहीं आता
अभी यहीं इसी वक़्त मुझसे ही
सब भेद जानना
उस गूँगे आदमी से वक़्त पूछने जैसा होगा
जिसके हाथ में अभी घड़ी तक नहीं है
किंतु मुद्दे की चीज़ है उसके संकेत
जिन तक पहुँचना अपने आप
उस झूठी घड़ी को तोड़ने जैसा होगा,
जिसने कभी हमें सही वक़्त नहीं बताया
यह उन तमाम झूठी ज़ुबानों को
काटने जैसा भी होगा
जिनकी छाया पड़ने से
भाषा का पानी
यानी
आदमी का सत्
कीचड़ हो चुका है.
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