भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<br>जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥
<br>बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
<br>इच्छित फल बिनु सिव अवराधे। अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥
<br>दो०-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
<br>होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥७०॥
<br>–*–*–<br>चौ०-कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
<br>पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥
<br>जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥
<br>जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
<br>सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥
<br>अस कहि परि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
<br>बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥
<br>दो०-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
<br>पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥७१॥
<br>–*–*–<br>चौ०-अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥
<br>करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू॥
<br>नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
<br>दो०-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
<br>सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥७२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
<br>मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥
<br>तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
<br>दो०-बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥
<br>पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥७३॥
<br>–*–*–<br>चौ०-उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
<br>अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥
<br>नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
<br>दो०-भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि।
<br>परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥७४॥
<br>–*–*–<br>चौ०-अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भउ भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
<br>अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥
<br>आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
<br>सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
<br>उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥
<br>जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब सें तें सिव मन भयउ बिरागा॥
<br>जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥
<br>दो०-चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
<br>बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥७५॥
<br>–*–*–<br>चौ०-कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
<br>जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥
<br>एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
Anonymous user