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टीले पर / मोहन साहिल

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<Poem>
अकेले सुनसान जंगल में जब समय
एक ऊंचे टीले पर खड़ा कर हमें
हो जाता है खिलाफ
हम खिसियाए से झाँकने लगते हैं बगलें
खोजते हैं निकल भागने की तरकीबें
गिरे बिना टीले से उतरना संभव नहीं
गिरने के बाद जीवित रहना कठिन
उहापोह में घिर आती है रात
कितना कठिन है पंजों के बल जीना
सपने और कल्पना तो हरगिज़ नहीं
जंगली जानवरों के सिवा कोई नहीं पास
घर को याद रखने की क्या तुक है
खड़े रहना होगा सुबह तक यूँ ही
चौकन्ना हो काटनी होगी रात
हल्की सी डगमगाहट
पहुँचा सकती है खाई के नुकीले पत्थरों पर


तब पत्नी की प्रतीक्षा
और बच्चों की आस का क्या होगा
पूर्व की ओर मुँह किए
सुबह की प्रतीक्षा में हैं हम
जंगल के खौफनाक माहौल में।
</poem>
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