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जैनिटिक्स / अनूप सेठी

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|रचनाकार=अनूप सेठी
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जिन हाथों ने कद्दू के बीजों से मेवे बनाए
भुट्टों को छीलकर अँबार लगाए
सोने के चाँद जैसी रोटियाँ खिलाईं
गोबर से फर्श लीपे बेलबूटेदार
हाथों में ताकत की ललाई दी
रगों में चाँद सूरज जैसी चमक भर दी
पैरों में न जाने कैसी जान आ गई
देह की जैनिटिक्स में कैसी सी जैनिटिक्स कुलबुलाती रहती है

भीड़ भरे बाजारों में सट सट कर चलने पर
अट्टालिकाओं में सिमट कर समा जाने पर
लोकल की भीड़ में भरमा जाने पर
न जाने कैसे इस जैनिटिक्स के कूट खुलने लगते हैं
समझ कुछ नहीं आते

दूर के सगों जैसे होते हैं जुदा-जुदा सँसार
भीड़ में चलते हुए सनसनी ला देते हैं
अट्टालिकाओं में सिमटते हुए भी रगें उफान खाती हैं
लोकल मस्त मलँग सी मुस्कुराने लगती है

दौड़ाने से बाज नहीं आती
देह की परवरिश की और अनजानी दुनिया की जैनिटिक्स।
(1992)

</poem>
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